नयी दिल्ली, 15 अप्रैल (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि विचाराधीन कैदी का लंबे समय तक जेल में रहना आतंकवाद के मामलों में जमानत देने का आधार नहीं हो सकता। इसने कहा कि इन मामलों का देशव्यापी प्रभाव होता है और इनमें अन्य बातों के अलावा देश की एकता को अस्थिर करने की मंशा होती है।
न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति शैलिंदर कौर की पीठ ने यह टिप्पणी की और लश्कर-ए-तैयबा एवं 26/11 मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद से जुड़े आतंकवाद-वित्तपोषण मामले में अलगाववादी नेता नईम अहमद खान को जमानत देने से इनकार कर दिया।
आरोपी ने अपनी जमानत याचिका में निचली अदालत के आदेश को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि मुकदमा निकट भविष्य में समाप्त होने की संभावना नहीं है और उसकी हिरासत की अवधि को स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के साथ संतुलित करने के लिए उसे जमानत दी जानी चाहिए।
पीठ ने 9 अप्रैल को अपने आदेश में कहा, ‘‘हालांकि हम जानते हैं कि विचाराधीन कैदी के त्वरित सुनवाई के अधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन ऐसे मामलों में, जिनमें आतंकवादी गतिविधियां शामिल हैं, जिनका राष्ट्रव्यापी प्रभाव होता है और जहां भारत संघ की एकता को अस्थिर करने तथा इसकी कानून-व्यवस्था को बाधित करने की मंशा होती है, और इससे भी अधिक, आम जनता के मन में आतंक पैदा करने की, जो कि ऐसे कारक हैं, जो महत्वपूर्ण होते हैं, लंबी अवधि तक कारावास में रहना, अपने आप में, किसी आरोपी को जमानत पर रिहा करने का पर्याप्त आधार नहीं होगा।’’
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता खान को 24 जुलाई 2017 को गिरफ्तार किया गया था और वह फिलहाल न्यायिक हिरासत में है।
आतंकवाद रोधी कानून गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत 2017 में दर्ज मामले में राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआईए) ने दावा किया कि अलगाववादियों ने आम जनता को हिंसा के लिए उकसाने और घाटी में अपने एजेंडे के प्रचार के लिए माहौल को तनावपूर्ण बनाने के लिए आपराधिक साजिश रची।
अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि खान सहित अन्य आरोपियों ने आतंकवादी गतिविधियों के माध्यम से जम्मू-कश्मीर को भारत संघ से अलग करने की साजिश रची, जिससे राष्ट्र की एकता, अखंडता और सुरक्षा को खतरा पैदा हुआ तथा उन्हें जमानत देना जनता की सुरक्षा के साथ-साथ मुकदमे के लिए भी हानिकारक होगा।
भाषा नेत्रपाल मनीषा
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