शायद हमारे पेट में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवों की तरह दिखता होगा |

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(मारिया रोजा पीनो ओतिन, यूनिवर्सिडैड सैन जॉर्ज)


जरागोजा (स्पेन), 23 फरवरी (द कन्वरसेशन) हम अक्सर भूल जाते हैं कि जीवन की उत्पत्ति कितनी अद्भुत और अनोखी घटना है। जहां तक हम जानते हैं, हमारा ग्रह ही एकमात्र ऐसा ग्रह है, जो जीवन को सहारा देने में सक्षम है, और ऐसा लगता है कि इसकी उत्पत्ति आज के एककोशिकीय प्रोकैरियोटिक (बिना कोशिकीय झिल्ली वाले) जीवों के रूप में हुई होगी।

हालांकि, वैज्ञानिकों ने हमारे ग्रह की सीमाओं से परे ‘एलयूसीए’ यानी ‘लास्ट यूनिवर्सल कॉमन एंसेस्टर’ (वह पैतृक कोशिका, जिससे सभी ज्ञात सजीव चीजों की उत्पत्ति हुई) को खोजने की उम्मीद नहीं छोड़ी है।

हम कहां खोज रहे हैं?

-जब से इंसानों ने मंगल पर आशियाना बसाने के सपने देखने शुरू किए हैं, तब से इस ग्रह को लेकर वैज्ञानिक सोच में काफी बदलाव आया है। लाल ग्रह की सतह पर चहलकदमी करने वाले हालिया यानों-‘पर्सिवियरेंस’ और ‘क्यूरियोसिटी’-ने ऐसे यौगिकों और खनिजों की पहचान की है, जो बताते हैं कि वहां मौजूद परिस्थितियां कभी जीवन योग्य रही होंगी, लेकिन फिलहाल इसके आगे कुछ नहीं पता लगाया जा सका है।

फिलहाल, मंगल ग्रह एक लाल रेगिस्तान-आकर्षक लेकिन वीरान, की तरह दिखता है, जिस पर निश्चित रूप से किसी जीव का अस्तित्व मौजूद नहीं है।

अन्य नजदीकी ग्रहों पर जीवन की संभावनाओं को लेकर उम्मीदें और भी कम हैं। बुध ग्रह सूर्य के बहुत करीब होने के कारण एक झुलसी हुई चट्टान के समान है, जबकि शुक्र का वातावरण शुष्क एवं विषैला है और हमारे सौर मंडल के अन्य ग्रह या तो गैस से बने हुए हैं या फिर सूर्य से बहुत दूर हैं। इसलिए, मंगल के अलावा जीवन की संभावनाओं की खोज उपग्रहों, खास तौर पर बृहस्पति और शनि की परिक्रमा करने वाले उपग्रहों पर केंद्रित है।

बृहस्पति और शनि के चंद्रमा, क्रमश: ‘यूरोपा’ और ‘एनसेलेडस’ पर बर्फ की मोटी परत के नीचे पानी के बड़े महासागर होने का अनुमान है, जिनमें जीवन की उत्पत्ति के लिए अहम माने जाने वाले कार्बनिक अणु मौजूद हो सकते हैं। ये अणु ईटी (एक्स्ट्रा-टेरेस्ट्रियल या परजीवी) की तरह नहीं, बल्कि सबसे सरल स्थलीय एककोशिकीय जीवों की तरह दिखते होंगे।

वैज्ञानिकों को ब्रह्मांड से जुड़ी खोज में 5,500 से अधिक ग्रहों की मौजूदगी की जानकारी मिली है, जो सूर्य के अलावा अन्य तारों की परिक्रमा करते हैं। इनमें से कुछ ही ग्रह जीवन की उत्पत्ति के योग्य माने जाते हैं और वर्तमान में उन पर अनुसंधान किया जा रहा है, और जैसा कि कार्ल सागन ने ‘कॉन्टैक्ट’ में कहा है, ‘‘ब्रह्मांड एक बहुत विशाल जगह है। अगर यहां सिर्फ हमारा अस्तित्व है, तो यह जगह की बहुत बड़ी बर्बादी लगती है।’’

दुर्गम जगहों पर जीवन की तलाश

-1960 के दशक से पहले, सौरमंडल के सबसे आशाजनक उपग्रहों पर जीवन की संभावना असंभव लगती थी।

तब तक प्रचलित मान्यता यह थी कि जीवन केवल उन परिस्थितियों में ही संभव है, जहां बहुकोशिकीय जीव फलते-फूलते देखे गए हैं। पानी की मौजूदगी, शून्य से 40 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान, तटस्थ श्रेणी में पीएच, कम लवणता और सूर्य या समकक्ष ऊर्जा स्रोत का प्रकाश जीवन पनपने के लिए आवश्यक माने जाते थे।

हालांकि, 20वीं सदी के मध्य में सूक्ष्मजीव विज्ञानी थॉमस डी ब्रॉक ने ‘येलोस्टोन नेशनल पार्क’ के गर्म झरनों में रहने वाले बैक्टीरिया की खोज की, जहां तापमान 70 डिग्री सेल्सियस से अधिक है। हालांकि, उस समय यह खोज दूसरे खगोलीय पिंडों पर जीवन की संभावनाओं की तलाश से संबंधित नहीं थी, लेकिन इसने इसकी वैज्ञानिक संभावनाओं को व्यापक बना दिया।

तब से, ‘एक्सट्रीमोफाइल’ (अति वातावरण में उत्तरजीविता वाले सूक्ष्मजीव) के नाम से जाने जाने वाले जीवों को पृथ्वी पर कई तरह की चरम स्थितियों में पनपते पाया गया है, ध्रुवीय बर्फ में पड़ी दरारों से लेकर गहरे समुद्र में मौजूद उच्च दबाव क्षेत्र तक में। बादलों में छोटे निलंबित कणों से चिपके हुए और मृत सागर जैसे अत्यधिक खारे वातावरण में या रियो टिंटो जैसे अत्यधिक अम्लीय वातावरण में ये बैक्टीरिया पाए गए हैं। कुछ ‘एक्सट्रीमोफाइल’ उच्च स्तर की विकिरण के प्रति भी प्रतिरोधी होते हैं।

हालांकि, सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि हमने उन्हें अपने अंदर पाया।

आपके पेट में बसते हैं मंगल ग्रहवासी!

-1980 के दशक में, दो ऑस्ट्रेलियाई चिकित्सकों-बैरी मार्शल और रॉबिन वॉरेन ने ‘गैस्ट्रोडुओडेनल अल्सर’ का अध्ययन शुरू किया। तब तक, इस स्थिति के लिए तनाव या अत्यधिक गैस्ट्रिक अम्लीय स्राव को जिम्मेदार माना जाता था, जिससे ज्यादा कारगर इलाज मुहैया कराना संभव नहीं था।

वॉरेन एक रोगविज्ञानी थे और मरीजों के ‘गैस्ट्रिक बायोप्सी’ के नमूनों में बैक्टीरिया की मौजूदगी की पुष्टि करने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि इन्हें भी ‘गैस्ट्रोडुओडेनल अल्सर’ का कारण माना जाना चाहिए। हालांकि, उन्हें इस हठधर्मिता के खिलाफ लड़ना पड़ा कि सूक्ष्मजीव मानव पेट के अत्यधिक अम्लीय वातावरण में विकसित नहीं हो सकते।

वॉरेन ने 1981 तक अपना अनुसंधान अकेले ही किया। फिर उनकी मुलाकात रॉयल ऑस्ट्रेलियन कॉलेज ऑफ फिजिशियन के फेलो बैरी मार्शल से हुई।

वर्ष 2005 में, मार्शल और वॉरेन को ‘हेलिकोबैक्टर पाइलोरी’ की खोज और गैस्ट्रिक रोगों में उसकी भूमिका का पता लगाने के लिए चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह एक ऐसी खोज थी, जिसने ‘गैस्ट्रोएंटरोलॉजी’ के क्षेत्र में क्रांति ला दी।

‘हेलिकोबैक्टर पाइलोरी’ में ऐसे अद्भुत कारक होते हैं, जो इसे प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने में मदद करते हैं। इनमें फ्लैगेला शामिल है, जो इसे पेट के तरल पदार्थ में तैरते हुए पेट की दीवार के करीब पहुंचने, सुरक्षात्मक श्लेष्म परत को तोड़ने और उससे चिपक जाने में सक्षम बनाता है।

‘एंजाइम यूरियेज’ का इस्तेमाल करके, ‘हेलिकोबैक्टर पाइलोरी’ पेट में यूरिया को अमोनिया और कार्बन डाइऑक्साइड में विघटित करता है, जिससे उच्च पीएच ‘माइक्रोक्लाइमेट’ बनता है और यह वातावरण उसके प्रजनन में सहायक होता है। जैसे-जैसे इसकी संख्या बढ़ती है, यह ‘एक्सोटॉक्सिन’ छोड़ता है, जो पेट में गैस्ट्रिक ऊतक को सूजन और नुकसान पहुंचाता है। इस तरह से अंततः अल्सर विकसित होते हैं।

‘एक्सट्रीमोफाइल’ के अध्ययन से यह उम्मीद जगती है कि सौर मंडल के अन्य पिंडों पर, या 5,500 ज्ञात बाह्यग्रहों में से किसी एक पर, चरम स्थितियों में भी जीवन की उत्पत्ति असाधारण घटना घटित हो सकती है।

भाषा

राजकुमार पारुल

पारुल



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