नयी दिल्ली, दो अगस्त (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि जब एक अदालत पाती है कि अग्रिम जमानत दी जा सकती है, खासकर वैवाहिक विवाद से जुड़े मामलों में, तो उसे जमानत की शर्तें लगाते समय सावधानी बरतनी चाहिए।
शीर्ष अदालत ने कहा कि उसे यह देखकर दुख हुआ कि अग्रिम जमानत के लिए कठिन शर्तें लगाने की प्रथा की निंदा करने वाले कई फैसलों के बावजूद ऐसे आदेश पारित किए जा रहे हैं।
उच्चतम न्यायालय की ये टिप्पणियां एक फैसले में आईं, जिसमें दहेज निषेध अधिनियम-1961 के तहत अपराधों समेत अन्य अपराधों के लिए दर्ज एक मामले में एक व्यक्ति को अनंतिम अग्रिम जमानत देते समय पटना उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई शर्त को खारिज कर दिया गया।
न्यायमूर्ति सी टी रविकुमार और न्यायमूर्ति पी के मिश्रा की शीर्ष अदालत की पीठ ने जमानत देते समय अनुपालन योग्य शर्तें लगाने की आवश्यकता पर बल दिया।
उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों की इच्छा पर विचार करते हुए उन्हें निचली अदालत के समक्ष एक संयुक्त हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया था, जिसमें कहा गया था कि वे एक साथ रहने के लिए सहमत हुए हैं।
इसमें यह भी कहा गया कि याचिकाकर्ता को शिकायतकर्ता की सभी शारीरिक और वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक विशिष्ट बचनबद्धता देनी होगी ताकि वह उसके परिवार के किसी भी सदस्य के हस्तक्षेप के बिना एक सम्मानजनक जीवन जी सके।
पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय के आदेश से पता चला कि जो पक्ष अलग होने वाले थे, उन्होंने दोबारा विचार किया और मतभेद भुलाकर फिर से एकजुट होने की इच्छा व्यक्त की।
इसने कहा, ‘‘दोनों परिवारों के समर्थन के बिना विवाह के माध्यम से संबंध विकसित नहीं हो सकते, लेकिन नष्ट हो सकते हैं।’’
पीठ ने यह भी कहा कि ऐसी शर्तें लगाना, जैसा कि इस मामले में किया गया है, केवल ‘‘बिलकुल असंभव और अव्यवहारिक’ के रूप में वर्णित किया जा सकता है।
भाषा संतोष नेत्रपाल
नेत्रपाल