नयी दिल्ली, 31 जुलाई (भाषा) यूरोपीय संघ (ईयू) का भारत को उसे कार्बन कर का भुगतान करने के बजाय अपना स्वयं का तंत्र विकसित करने का सुझाव घरेलू कंपनियों के लिए अधिक मददगार साबित नहीं होगा, क्योंकि वे अब भी यूरोपीय संघ को अपने निर्यात पर शुल्क देने के लिए उत्तरदायी होंगे।
आर्थिक शोध संस्थान थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) ने बुधवार को बयान कहा कि मुख्य मुद्दा यह है कि कार्बन की कीमतें आमतौर पर किसी देश की आर्थिक स्थिति पर आधारित होती हैं, इसलिए केवल स्थानीय कर जोड़ने से समग्र कर का बोझ काफी कम नहीं होगा।
खबरों के अनुसार, यूरोपीय संघ के एक प्रतिनिधिमंडल ने भारत को सुझाव दिया है कि भारत अपना स्वयं का कार्बन कर लागू कर सकता है और कार्बन उत्सर्जन को कम कर सकता है।
जीटीआरआई ने कहा कि यद्यपि यूरोपीय संघ उच्च कार्बन कीमतों को वहन कर सकता है, लेकिन भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह सतत उपाय नहीं हो सकता।
आर्थिक शोध संस्थान ने कहा कि वर्तमान में वैश्विक औसत कार्बन मूल्य करीब छह अमेरिकी डॉलर प्रति टन सीओ2 है। यदि भारत उत्सर्जन व्यापार प्रणाली (ईटीएस) स्थापित करता है या कार्बन मूल्य निर्धारित करता है, तो यह 10 अमेरिकी डॉलर प्रति टन सीओ2 से कम होने की उम्मीद है।
यूरोपीय संघ ने सीबीएएम या कार्बन कर लगाने का फैसला किया है जो एक जनवरी 2026 से लागू होगा। हालांकि इस साल अक्टूबर से इस्पात, सीमेंट, उर्वरक, एल्यूमीनियम और हाइड्रोकार्बन उत्पादों सहित सात कार्बन-गहन क्षेत्रों की घरेलू कंपनियों को यूरोपीय संघ के साथ कार्बन उत्सर्जन के संबंध में डाटा साझा करना होगा।
शोध संस्थान के अनुसार, ईयू-सीबीएएम के पूर्ण रूप से क्रियान्वित होने पर भारतीय कंपनियों पर 20-35 प्रतिशत आयात कर लगेगा और घरेलू उद्योग को सभी संयंत्र तथा उत्पादन विवरण ईयू के साथ साझा करना होगा।
इसने कहा गया, ‘‘ साथ ही बड़ी कंपनियों को दो उत्पादन लाइन चलाने की जरूरत पड़ सकती है। यूरोपीय संघ के देशों को निर्यात के लिए उत्पाद बनाने और बाकी दुनिया के लिए सामान्य उत्पाद बनाने के लिए यह महंगा लेकिन पर्यावरण के अनुकूल है। सीबीएएम विश्व व्यापार को बड़े पैमाने पर बाधित करेगा।’’
भारत ने इस कदम की कड़ी आलोचना की है तथा वह इस मुद्दे पर यूरोपीय संघ के साथ बातचीत कर रहा है।
जीटीआरआई ने यह भी कहा कि भारत में प्रति टन सीओ2 के लिए 10 अमेरिकी डॉलर से अधिक की उच्च कार्बन कीमत निर्धारित करने से कई नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं।
जीटीआरआई के संस्थापक अजय श्रीवास्तव ने कहा, ‘‘ इससे इस्पात और एल्युमीनियम जैसे उद्योगों की उत्पादन लागत बढ़ेगी, जो जीवाश्म ईंधन पर बहुत अधिक निर्भर हैं, जिससे वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतें बढ़ जाएंगी। इससे भारतीय कंपनियां कम कार्बन मूल्य निर्धारण वाले या बिना कार्बन मूल्य निर्धारण वाले देशों की तुलना में कम प्रतिस्पर्धी हो सकती हैं।’’
उन्होंने कहा कि उच्च कार्बन उत्सर्जन वाले उद्योग यदि उच्च लागत वहन नहीं कर सकते तो वे नौकरियों में कटौती कर सकते हैं या बंद हो सकते हैं, जिससे कई नौकरियां जा सकती हैं।
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